मेंढक और मछली
सुनो अनोखी एक कहानी
जिसका मुख्य पात्र है ‘पानी’
एक बार मेंढक और मछली
ने आपस में चर्चा कर ली
मछली बोली, सुनो ऐ मेंढक
देखो झीलों से सागर तक
तुमने कितना गंद मचाया
कीचड़ सा पानी है बनाया
मेंढक बोला, मछली बहना
मानो तुम मेरा यह कहना
इसमें मेरा दोष नहीं है
गुनहगार दूजा कोई है
वह जिसको कहते हम ज्ञानी
सबसे बुद्धिमान है प्राणी
बात ज़रा सी समझ न पाया
पृथ्वी को जिसने नहलाया
उस पानी का रखा न ध्यान
सूख रहे खेत खलिहान
मछली को यह बात न भाई
नर से कहा, ध्यान दो भाई!
पढ़े लिखे हो, समझदार हो
क्यों रखते नहीं साफ़ सफ़ाई?
पानी की हर बूँद बचाओ
वृक्ष लगाओ, बाग़ सजाओ
झीलें नदियाँ साफ़ कराओ
हरियाली, ख़ुशहाली लाओ
बूँद बूँद से भरकर सागर
पानी का अमृत बरसाओ
Morning Delivery
Papa’s helmet’s old and black,
mama’s scarf is red and new,
baby sits between,
dressed in royal blue.
The wind is her eyes,
see those pigtails fly—
O that smile is so much brighter
than this hazy, April sky.
Hold on tight, mama!
Papa, keep your cool:
you’re delivering a princess
to some lucky Delhi school.
मेंढक और बुलबुल
अनुवाद: मोहिनी गुप्ता
दलदल देश में मेंढक एक
करता रहता टर्र−टर्र टेक।
सूरज के ढलकर उगने तक
टर्र–टर्र चलती उसकी बकबक
बाक़ी सब सुनना न चाहते
लेकिन वे भी क्या कर पाते।
मानो टूट पड़ी हो गाज़
सुननी पड़ी उसकी आवाज़।
बरगद तले बैठा वो मेंढक
गाता रहता टेक सुबह तक।
मारे पत्थर मारे डंडे
ईंट टमाटर साथ में अंडे
उसके जोश को रोक न पाए
मस्त मेंढक वो गाता जाए।
आई फिर एक चांदनी रात
लाई एक बुलबुल को साथ
बैठ उसी बरगद के ऊपर
सुर मिलाए उसने तत्पर।
मेंढक रह गया भौंचक्का
बाक़ी जानवर हक्का–बक्का,
जिस बरगद से गूंजती गालियां
बजी वहीं अब सबकी तालियां।
बतख़ बगुला दूर से आए
उसके गीतों में समाए,
चांद की चकोरी कोई
गाना सुनकर दर्द से रोई।
दादुर, कलहंस, बछड़े सब
देने लगे बढ़ावा तब:
“वाह वाह!” “बहुत ख़ूब!” “ये बात!”
बुलबुल ने फिर की शुरुआत
न थी वाहवाही की आदत
गाती रही वह सुबह तक।
बुलबुल अगली रात को आई
सिर झटकाया, पूँछ फड़काई,
आँखें मींचे, पंख फुलाए,
गले की ख़राश मिटाए।
एक दम सुनी कहीं से टर्र−टर्र
“आप कुछ बोले?” पूछा डरकर,
मेंढक जो आया था ख़ास
फुदक–फुदक कर उसके पास।
“हाँ,” वो बोला, “दरअसल,
यह बरगद है मेरा स्थल,
मालिक मैं ही हूं यहां का
बड़ा है नाम मेरी कला का
लिख देता हूं कभी कभार
दलदल टाइम्स में शब्द दो चार। ”
“कैसा…था मेरा यह गीत?”
“ख़ास नहीं—पर था तो ठीक
सुर लगे थोड़े से कम,
और गाने में न था दम।”
“ओह!” बोली बुलबुल बेचारी
मानकर उसकी बातें सारी
भा गया उस्ताद का ज्ञान
दिया जो उसके गीत पे ध्यान,
“गीत में शायद नहीं था दम
पर मेरा था कम से कम।”
“इसमें क्या है बड़ी बात?”
बोला वह घमंड के साथ।
“सीखो गर तुम मेरे पास
कर पाओगी सही अभ्यास
बन जाओगी बेहतरीन
नहीं तो बजाती रहोगी बीन।”
“प्यारे मेंढक,” बुलबुल चहकी
“बगिया आज है मेरी महकी
तानसेन से गुरु आप
मुझे सिखाएं तान आलाप।”
“लूंगा लेकिन थोड़ी फ़ीस
पर तुमको न होगी टीस।”
अब बुलबुल को आया जोश
उड़ा दिए सभी के होश।
उसके सुर का जादू छाया
कभी न देखी ऐसी माया
और मेंढक गिन–गिनकर ऐसे
लेता रहा टिकट के पैसे।
अगले दिन हुई तेज़ बारिश
बुलबुल के थी गले में खारिश।
“मुझसे न गाया जाएगा।”
“चलो चलो सब हो जाएगा!
सजो–धजो, भूल जाओ खराश
को–उ–आ! को–आश! को–आश!”
बुलबुल को यूं बुद्धू बनाता
उसे घंटों रियाज़ कराता,
आख़िर बुलबुल की आवाज़
बैठ गई कर–कर रियाज़।
बुलबुल अब थकी और हारी
रही बेचारी नींद की मारी
रात को आवाज़ लौट आई
महफिल फिर शानदार सजाई
सारस सम्राट, कौए महाराज
छोड़के आए सब कामकाज
हज़ारपुर से हंस हुज़ूर
मोर और मोरनी मिरज़ापुर
अलीगढ़ से अबाबील अली
रौनक चारों ओर थी फैली
बेगम पहने मुकुट चमकते,
ब्रेक में एक दूसरे से चहकते—
मेंढक के भी मुस्काए होंठ
पर थी उसकी खुशी में खोट।
मेंढक था हर दिन चिल्लाता
“तुमको कुछ भी तो नहीं आता!
रियाज़ नहीं करती हो रोज़
आवाज़ में लाओ मुझ–सा सोज़।
जब कल नग़मों का किया गान
घबरा गयीं तुम बीच–उड़ान
एक और बात बुलबुल रानी,
तुम्हें हैं हरकतें भी गानी
गीत हों चटपटे मसालेदार
कुछ तो मज़ा चखाओ यार!
अभी हमें है और कमाना
कब दोगी मेरा बारह आना?”
अब तो दिन–ब–दिन बेचारी
रहने लगी थकी और हारी
गाने में अब रहा न जोश
लुढ़कते फिसलते चलता रोज़
इसी तरह उसका वह गाना
जब तक सबने बंद किया आना।
जानवर सब हो गए बोर
सुनते सुनते उसका शोर
बंद हुआ टिकटों का बिकना
बेचारी को नहीं था टिकना
तरस गए थे उसके कान
सुनने को अपना गुणगान
अकेले ही अब उसने गाया
लेकिन बिलकुल सुख न पाया।
अब मेंढक हुआ बहुत नाराज़
“मूर्ख, क्यों नहीं करतीं रियाज़!
फैशन का कुछ रखो ध्यान
खुद में लाओ उत्साह और जान।”
चुप–चाप सुना पर सह न पाई
निराशा से आंखें भर आईं,
अंतिम बार लगाया ज़ोर
टूटी उसकी सांस की डोर।
मेंढक बोला “मैंने तो थी
की कोशिश सिखाने की।
बेवकूफ़ समझ न पाती
जैसा मन करता था गाती।
थी वो कुछ ज़्यादा ही चंचल
मन बदलती रहती हर पल।
उस निकम्मी बुलबुल के पास
खुद पर न था ज़रा विश्वास
इसीलिए मैं सबसे खास
को–उ–आ! को–आश! को–आश!”
अब है बस मेंढक का राज
उसके सिर है सुर का ताज।
হাবিজাবি & হাবুদুবু
HABI-JABI & HABU-DUBU
Habi-jabi went habu-dubu
On his first day in the pool
Habu-dubu did habi-jabi
On his first day at school
Habi-jabi met Habu-dubu
In the park in good weather
Now, Habi-dubu and Habu-jabi
Do everything together
কচকচ
KOCH-KOCH
Koch-koch chewed a kakdi
with a koch-koché sound
Koch-koch chewed an apple
with a koch-koché sound
Koch-koch chewed some grass
with a koch-koché sound
Until her mum picked her up,
up and off the ground!
কনকনে & চটচটে
KONN-KONNÉ & CHOTT-CHOTÉ
Konn-konné felt so shivery – brrrrrrrrrr – in the icy cold
Until – mmmm – she had a konn-konné ice-cream cone!
Chott-choté felt so sticky – icccckkkkk – in the sweaty heat
Until – mmmm – she had a chott-choté ghee-n-sugar treat!
থলথলে & থকথকে
THHOL-THHOLÉ &
THHOK-THHOKÉ
Thhol-thholé like jellies
Thhol-thholé like bellies
Thhok-thhoké like gravy
Or mud under your wellies
BHAW for ভিনভিন / ভনভন / ভোঁসভোঁস / ভোঁভোঁ
Bhin-bhin likes to buzz
Bhon-bhon likes to hum
Bhosh-bhosh likes to snore
Bhow-bhow loves to run!
खुर्ची आणि स्टूल
खुर्ची म्हणाली “अरे स्टुला,
केंव्हा येणार चालायला तुला?”
स्टूल म्हणाले “त्याच वेळी
जेंव्हा हाताने वाजवशील टाळी.”
हे ऐकून पंखा हसला;
पाय नसून फिरत बसला.
पतंग गुल करण्याचा मंत्र
सात वेळा सात वारे, नऊ वेळा नऊ दिशा
अक्कड मिट्टी फक्कड मिट्टी, अस्वलाच्या लांब मिशा.
तीन वेळा तीन तेरा, पाच वेळा पाच बोटे
अक्कड मिट्टी फक्कड मिट्टी, माशामाधले लांब काटे.
सात वेळा घातला पेच, नऊ वेळा दिली हूल.
अक्कड मिट्टी फक्कड मिट्टी, तुमचा पतंग झाला गुल.