Mendhak Aur Bulbul (The Frog and the Nightingale)

मेंढक और बुलबुल

अनुवाद: मोहिनी गुप्ता 

 

दलदल देश में मेंढक एक 

करता रहता टर्रटर्र टेक।  

सूरज के ढलकर उगने तक 

टर्रटर्र चलती उसकी बकबक 

बाक़ी सब सुनना न चाहते

लेकिन वे भी क्या कर पाते।  

मानो टूट पड़ी हो गाज़ 

सुननी पड़ी उसकी आवाज़।  

बरगद तले बैठा वो मेंढक 

गाता रहता टेक सुबह तक। 

मारे पत्थर मारे डंडे 

ईंट टमाटर साथ में अंडे 

उसके जोश को रोक न पाए 

मस्त मेंढक वो गाता जाए।  

आई फिर एक चांदनी रात 

लाई एक बुलबुल को साथ 

बैठ उसी बरगद के ऊपर 

सुर मिलाए उसने तत्पर।  

मेंढक रह गया भौंचक्का 

बाक़ी जानवर हक्काबक्का,

जिस बरगद से गूंजती गालियां

बजी वहीं अब सबकी तालियां।  

बतख़ बगुला दूर से आए 

उसके गीतों में समाए,

चांद की चकोरी कोई 

गाना सुनकर दर्द से रोई।

दादुर, कलहंस, बछड़े सब  

देने लगे बढ़ावा तब:

वाह वाह!” “बहुत ख़ूब!” “ये बात!”

बुलबुल ने फिर की शुरुआत

न थी वाहवाही की आदत 

गाती रही वह सुबह तक।

बुलबुल अगली रात को आई 

सिर झटकाया, पूँछ फड़काई,

आँखें मींचे, पंख फुलाए,

गले की ख़राश मिटाए।

एक दम सुनी कहीं से टर्रटर्र

आप कुछ बोले?” पूछा डरकर,  

मेंढक जो आया था ख़ास

फुदकफुदक कर उसके पास।

हाँ,” वो बोला, “दरअसल,

यह बरगद है मेरा स्थल,

मालिक मैं ही हूं यहां का 

बड़ा है नाम मेरी कला का 

लिख देता हूं कभी कभार 

दलदल टाइम्स में शब्द दो चार। 

कैसाथा मेरा यह गीत?” 

ख़ास नहींपर था तो ठीक

सुर लगे थोड़े से कम, 

और गाने में न था दम। 

ओह!” बोली बुलबुल बेचारी 

मानकर उसकी बातें सारी 

भा गया उस्ताद का ज्ञान 

दिया जो उसके गीत पे ध्यान,

गीत में शायद नहीं था दम 

पर मेरा था कम से कम।

इसमें क्या है बड़ी बात?” 

बोला वह घमंड के साथ।  

सीखो गर तुम मेरे पास 

कर पाओगी सही अभ्यास 

बन जाओगी बेहतरीन 

नहीं तो बजाती रहोगी बीन। 

प्यारे मेंढक,” बुलबुल चहकी 

बगिया आज है मेरी महकी 

तानसेन से गुरु आप

मुझे सिखाएं तान आलाप। 

लूंगा लेकिन थोड़ी फ़ीस 

पर तुमको न होगी टीस।

अब बुलबुल को आया जोश 

उड़ा दिए सभी के होश।  

उसके सुर का जादू छाया 

कभी न देखी ऐसी माया 

और मेंढक गिनगिनकर ऐसे 

लेता रहा टिकट के पैसे। 

अगले दिन हुई तेज़ बारिश 

बुलबुल के थी गले में खारिश।  

मुझसे न गाया जाएगा। 

चलो चलो सब हो जाएगा!

सजोधजो, भूल जाओ खराश 

को! कोआश! कोआश!” 

बुलबुल को यूं बुद्धू बनाता

उसे घंटों रियाज़ कराता,

आख़िर बुलबुल की आवाज़ 

बैठ गई करकर रियाज़। 

बुलबुल अब थकी और हारी 

रही बेचारी नींद की मारी 

रात को आवाज़ लौट आई 

महफिल फिर शानदार सजाई 

सारस सम्राट, कौए महाराज 

छोड़के आए सब कामकाज 

हज़ारपुर से हंस हुज़ूर 

मोर और मोरनी मिरज़ापुर 

अलीगढ़ से अबाबील अली

रौनक चारों ओर थी फैली

बेगम पहने मुकुट चमकते,

ब्रेक में एक दूसरे से चहकते

मेंढक के भी मुस्काए होंठ 

पर थी उसकी खुशी में खोट। 

मेंढक था हर दिन चिल्लाता 

तुमको कुछ भी तो नहीं आता! 

रियाज़ नहीं करती हो रोज़ 

आवाज़ में लाओ मुझसा सोज़।  

जब कल नग़मों का किया गान 

घबरा गयीं तुम बीचउड़ान

एक और बात बुलबुल रानी,

तुम्हें हैं हरकतें भी गानी 

गीत हों चटपटे मसालेदार 

कुछ तो मज़ा चखाओ यार! 

अभी हमें है और कमाना 

कब दोगी मेरा बारह आना?”

अब तो दिनदिन बेचारी 

रहने लगी थकी और हारी 

गाने में अब रहा न जोश 

लुढ़कते फिसलते चलता रोज़ 

इसी तरह उसका वह गाना 

जब तक सबने बंद किया आना।  

जानवर सब हो गए बोर

सुनते सुनते उसका शोर 

बंद हुआ टिकटों का बिकना 

बेचारी को नहीं था टिकना 

तरस गए थे उसके कान 

सुनने को अपना गुणगान 

अकेले ही अब उसने गाया 

लेकिन बिलकुल सुख न पाया। 

अब मेंढक हुआ बहुत नाराज़ 

मूर्ख, क्यों नहीं करतीं रियाज़! 

फैशन का कुछ रखो ध्यान 

खुद में लाओ उत्साह और जान। 

चुपचाप सुना पर सह न पाई 

निराशा से आंखें भर आईं,

अंतिम बार लगाया ज़ोर

टूटी उसकी सांस की डोर। 

मेंढक बोलामैंने तो थी 

की कोशिश सिखाने की।  

बेवकूफ़ समझ न पाती 

जैसा मन करता था गाती।  

थी वो कुछ ज़्यादा ही चंचल 

मन बदलती रहती हर पल।  

उस निकम्मी बुलबुल के पास 

खुद पर न था ज़रा विश्वास 

इसीलिए मैं सबसे खास 

को! कोआश! कोआश!” 

अब है बस मेंढक का राज

उसके सिर है सुर का ताज।